तत्व ज्ञान

परम पूज्य क्रियायोगी गुरुदेव श्री श्री गणेश नारायण व्यास को अष्टांग–सष्टांग, दण्डवत, कोटि-कोटि प्रणाम सहित… सादर समर्पित… @ प्रताप 

तत्व ज्ञान का अर्थ है- आत्म ज्ञान- त अर्थात परमात्मा , त्व अर्थात जीवात्मा ! जीवात्मा और परमात्मा के एक होने पर ही तत्व ज्ञान होता है! तत्व ज्ञान बोध कराता है कि  सृष्टि का सार तत्व क्या है, निर्माण का रहस्य क्या है और हमारे अस्तित्व के उद्देश्य अर्थात आत्मा के सत्य से हमें परिचित कराता है। तत्व ज्ञान को सहज करने के लिए पांच भागो में सत्य को विभक्त किया गया है –  प्रथम – परमात्मा, द्वितीय  – प्रकृति, तृतीय – जीव, चतुर्थ – समय और पंचम – कर्म

ईश्वर :
ईश्वर स्वतंत्र है, परम शुद्ध और  समस्त गुणों से परे है। वह सृष्टि के रचियता, संरक्षक और विनाशक है। ईश्वर पर समय और स्थान का बंधन नहीं होता है। ईश्वर सर्वव्यापी और अविनाशी है।
प्रकृति :
ईश्वर से ही जीव और प्रकृति की उत्पत्ति हुई है। प्रकृति को शक्ति भी कहते है। इस प्रकृति अर्थात शक्ति के दो रूप है –  अविद्या और विद्या. अविद्या प्रकृति का निम्न स्वरुप है और विद्या प्रकृति का उच्चतम स्वरुप है। अविद्या को अपरा विद्या और विद्या को परा विद्या के नाम से भी जाना जाता है।
प्रकृति के अविद्या स्वरुप को ही माया कहते है माया का अर्थ है- या+माँ+सा- माया अर्थात जो सत्य नही किन्तु सत्य प्रतीत होता है वही माया है! ईश्वर को सृष्टि की रचना के लिए अपनी माया रुपी शक्ति का ही आश्रय लेना पड़ता है। प्रकृति का स्वभाव जड़ है अर्थात प्रकृति स्वयं से कुछ निर्माण नहीं करती है।  प्रकृति को गति, चेतना से अर्थात परमात्मा के संकल्प से प्राप्त होती है। जब सृष्टि की उत्पत्ति नहीं हुई होती है तो ईश्वर की यह दिव्य शक्ति साम्यावस्था में रहती है अर्थात इसके तत्व सत्व  रज और तम समान मात्रा में उपस्थित रहते है. ईश्वर जब सृष्टि की रचना का संकल्प लेते है तब इन तत्वों में विषमता उत्पन्न होती है सत्व रज और तम के विभिन्न आनुपातिक संयोग सृष्टि को विभिन्नता प्रदान करते है। सृष्टि के आदिकाल का प्रथम तत्व तमस है तम से ही क्रमिक रूप से आकाश तत्व, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी तत्वों की उत्पत्ति होती है जिससे समस्त सृष्टि का प्रादुर्भाव होता है। पञ्च भूत तथा इन्द्रियों के भोग के विषय अर्थात रूप रस गंध, स्पर्श शब्द यह सब अविद्या माया के स्वरुप है इस संसार में जो भी इन्द्रियों द्वारा अनुभूत किया जा सकता है सब माया के अंतर्गत आता है। माया इश्वर की अद्वितीय शक्ति है और यह संसार में ऐसे समाई हुयीं है जैसे गर्मी/उर्जा के साथ अग्नि! अगर अग्नि में से समस्त ऊष्मा को निकाल लिया जाये तो उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता है जिस  तरह ताप के बिना अग्नि की कल्पना नहीं कर सकते उसी प्रकार इश्वर की माया भी ऐसी ही शक्ति है जिसके बिना संसार की कल्पना करना भी असंभव है अविद्या माया के कारण मनुष्य के अहंकार की पुष्टि होती है और अहम् के साथ इर्ष्या, लोभ, क्रोध इत्यादि का भी जीवन में प्रवेश हो जाता है। माया के कारण ही मनुष्य नाशवान संसार को सत्य मानकर भौतिकता में उलझा रहता है। अविद्या अज्ञान पैदा करती है जो इश्वर को भुला देती है जीव आत्मा ईश्वर का ही अंश है किन्तु माया का प्रभाव दिव्य गुणों को आच्छादित कर अज्ञान को पैदा करती है जो जीव को संसार की ओर उन्मुख कर ईश्वर से दूर कर देता है।
परा विद्या को ब्रह्म विद्या भी कहते है क्योकि विद्या रूप में शक्ति जीव के अन्दर सद्गुणों को विकसित करती है और सत्संग की इच्छा ज्ञान भक्ति प्रेम वैराग्य जैसे गुण प्रदान कर ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग दिखाती है। इन गुणों का विकास होने पर जीव ईश्वर दर्शन का अधिकारी होता है ! विद्या रुपी शक्ति जीव में इश्वरत्व की अनुभूति करा कर उसको स्वतंत्र और सामर्थ्यवान बनाती है
आदि शक्ति का अविद्या रूप भी आवश्यक है। जिस तरह किसी भी फल का छिलका रहने पर फल बढता है और फल जब तैयार हो जाता है तो छिलका फेंक देना पड़ता है! इसी तरह माया रूपी छिलका रहने पर धीरे- धीरे मर्म ज्ञान होता है! जब ज्ञान रुपी फल परिपक्व हो जाता है तब अविद्या रूपी छिलके का त्याग कर देना चाहिए। प्रकृति की कोई भी बाधा वास्तव में बाधा नहीं होती जो भी बाधा दिखाई पड़ती है वह शक्ति को जगाने की चुनौती होती है! उदाहरण के लिए बीज  को जमीन में दबाने पर मिटटी की परत, जो बीज के ऊपर दिखती है, बाधा की तरह दिखाई देती है किन्तु सत्य तो यह होता है की जमीन बीज को दबा कर उसे अंकुरित होने में सहायता करती है! इसलिए शक्ति के दोनों रूप आवशयक है. बंधन और मुक्ति दोनों ही करने वाली ही आदि शक्ति है उनकी माया से संसारी जीव माया में बंधा होता है, पर उनकी दया हो जाये तो वह बंधन से छूटने में सहायता भी करती है। यही कारण है कि माया के प्रभाव से मुक्त होने के लिए देवी की आराधना की जाती है
जीवात्मा – 
आत्मा के दो रूप होते है – एक तो सार्वभौम  सर्वोच्च आत्मा और दूसरी विशेष व्यक्तिगत आत्मा अर्थात जीव आत्मा. आत्मा अपने सर्वोच्च रूप में अकर्ता, अभोक्ता, अपरिवर्तनशील,शाश्वत, अजन्मा, अविनाशी और समस्त विश्वो का सार हैजीवरूप में आत्मा को परिवर्तनशील, अनित्य,कर्मो का सम्पादन करने वाला और उनके फलो का भोग करने वाला, पुनर्जनम लेने वाला, और शरीर में सीमित माने गया है वस्तुत जब अविद्या के कारण आत्मा शरीर से सम्बंधित हो जाता है तो वह जीव आत्मा कहलाता है
समय –
समय निर्बाधगति से निरंतर चलता रहता है।  वर्तमान में प्रयुक्त हो रहे समय के मानक मनुष्य ने अपनी सुविधा के अनुसार बनाये है किन्तु इन मानको का आधार सूर्य आदि ग्रह ही है। हर गृह की गति भिन्न होती है और यही विभिन्न गतियाँ समय में भिन्नता प्रतीत कराती है। उदाहरण के लिए एक दिन और रात्रि का निर्धारण सूर्य और पृथ्वी की घूर्णन गति और उनकी सापेक्ष स्थिति पर निर्भर है। इसी तरह चंद्रमा की स्थिति के आधार पर शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष का निर्धारण किया जाता है। मौसम का परिवर्तन और धरती पर होने वाली अन्य घटनाये ग्रहों के कारण ही घटित होती है। ज्योतिष विज्ञान में विभिन्न घटनाओ का समय निर्धारण का आधार भी गृह नक्षत्र और उनकी विभिन्न गतियाँ है।
समय दो रूपों में अभिव्यक्त होता है – पदार्थ परक और व्यक्तिपरक। पदार्थ परक समय वह समय है जो सबके द्वारा मानी है जैसे घड़ी में सेकंड मिनट और घंटे का समय। व्यक्ति परक समय वह समय होता है जो मन को महसूस होता है। उदाहरण के लिए दुःख का समय मन को अधिक लम्बा प्रतीत होता है।
समय के और सुविधाजनक प्रयोग के लिए उसे तीन भागों में विभक्त करते है – वर्तमान, भूत और भविष्य . समय का वह भाग जो हम उसी क्षण अनुभव करते है वर्तमान कहलाता है. यह समय अत्यंत अल्प होता है। उदाहरण के लिए जो विचार अथवा कर्म जिस पल आता है वर्तमान होता है. उस पल के ख़त्म होते ही वह जो समाप्त हो गया भूतकाल कहलाता है। काल का वह भाग जो अनुभव में अभी नहीं आया है भविष्य कहलाता है .
इस सृष्टि के अन्दर की समस्त वस्तुए चाहे वह जड़ हो अथवा चेतन समय के द्वारा प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए मनुष्य, जंतु वृक्ष इत्यादि सब जन्म लेने के उपरांत विभिन्न स्थितियों को प्राप्त करते है जैसे बचपन, यौवन अवस्था और वृद्ध अवस्था। इसी प्रकार घर जो की निर्जीव वस्तुओ के प्रयोग से बना होता है किन्तु वह भी समय व्यतीत होने पर क्षीणता को प्राप्त होता है। हर वस्तु अथवा व्यक्ति अपने गुण और धर्म के अनुसार समय से प्रभावित होता है। जैसे पत्थर में परिवर्तन के लिए अधिक समय की आवश्यकता होती है किन्तु पुष्प कम समय में प्रभावित हो जाते है।
कर्म –
यह सम्पूर्ण प्रकृति कर्म नियम द्वारा ही संचालित है व्यक्ति को अपने किये गए कर्म  का फल अवश्य मिलता है क्योंकि बिना भोगे कर्म के फल का नाश नही होता कर्म  का फल यदि किसी कारण से इस जनम में नही भोग पाये तो वह अगले जनम में भोगना पड़ता है
कर्म गुणवत्ता के आधार पर  मुख्यतः दो प्रकार के होते है.वह कर्म जो की फल की प्राप्त करने की आशा में किये जाते है सकाम कर्म कहलाते है। इस प्रकार के कर्म ही व्यक्ति को सुख और दुःख देते है किसी भी कर्म करने के पीछे व्यक्ति का स्वार्थ छिपा होता है तो वह सकाम कर्म कहलाता है सकाम कर्मो के दो भेद होते है सत्कर्म और दुष्कर्म
मनुष्य दिव्य प्राणी तो है परन्तु उसमे असत का भी तत्व है जो उसे बुराई का शिकार होने देता है, अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए जब अशुभकर्म किया जाता है उदहारण के लिए धन प्राप्ति के लिए झूठ बोलना, वह दुष्कर्म कहलाता है, अपने सुख के लिए जब दान पुण्य इत्यादि किये जाते है तो वह सत्कर्म  किये जाते है
यह सत्य है कि सत्कर्म शुभ होते है लेकिन वह मोक्ष दायक नहीं होते है, क्यूंकि फल प्राप्ति की इच्छा से जो भी कर्म किये जाते है वह सदैव बंधनकारी होते है वह कर्म जिन्हें व्यक्ति अपना कर्त्तव्य समझ कर बिना फल प्राप्ति की इच्छा से करता है वह निष्काम कर्म कहे जाते है ऐसे कर्म व्यक्ति को बंधन में नहीं बांधते है एवं मोक्ष दायक होते है
कुछ लोग तटस्थ कर्म का भी इसमें समावेश करते है। तटस्थ कर्म वह होते है जिनका कोई विशेष लाभ अथवा हानि नहीं होता है। इसी प्रकार कुछ शारीरिक कर्म अभ्यासवश कर लिए जाते है जैसे भोजन ग्रहण करना , किसी स्थान पर जाने के लिए चलना
कर्म उसके फल के दृष्टिकोण से तीन प्रकार के  होते है संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म, क्रियमाण कर्म
संचित कर्म – किसी मनुष्य के द्वारा वर्तमान समय  में किया गया जो कर्म है चाहे वह इस जन्म में किया गया हो अथवा पूर्व जन्म में, वह उसका संचित कर्म कहलाता है, व्यक्ति द्वारा किये गए समस्त कर्मो का संग्रह संचित कर्म होते है
प्रारब्ध कर्म – संचित कर्मो का फल भोगना प्रारंभ हो जाता है तो उन्हें प्रारब्ध कर्म कहते है
क्रियमाण कर्म – जो कर्म वर्तमान काल में हो रहा है या किया जा रहा है उसे क्रियमान कर्म कहते है, ये क्रियमाण कर्म ही भविष्य में संग्रहित हो कर संचित कर्म बनते है और संचित कर्म ही फिर भविष्य में प्रारब्ध कर्म बनते है
कर्म क्रियान्वय की दृष्टि में  तीन प्रकार से निष्पादित होते है – शारीरिक, मानसिक और वाचिक शारीरिक कर्म ज्ञानेन्द्रियो द्वारा देखे जा सकते है जैसे भवन का निर्माण इत्यादि कार्य. मानसिक कर्म में विभिन्न विचारो का चिंतन, कल्पनाशीलता और इच्छाओ आदि का समावेश होता  है। वाचिक कर्म वह होते है जो वाणी द्वारा संपादित किये जाते है। जैसे भवन निर्माण में मुख्य  शिल्पकार वाणी का प्रयोग कर दिशा निर्देश करता है शारीरिक कर्म किसी न किसी रूप में चिन्हित किये जा सकते है यदि कोई व्यक्ति ह्रदय रोग से पीड़ित होता है तो यह अनुमान स्वभावतः आता है कि आहार और विहार का ध्यान नहीं रखा गया है। वाणी द्वारा किये गए कर्म भी कुछ समय तक अनुभव किये जा सकते है जैसे किसी पर यदि कटु शब्दों का प्रयोग किया जाये तो कहने वाले और सुनने वाले दोनों पर इसका प्रभाव स्पष्ट रहता है इन दोनों के विपरीत मानसिक कर्मों के उद्गम को चिन्हित करना अत्यंत कठिन होता है क्योकि मन का क्षेत्र अत्यंत विशाल होता है।
कर्म के समस्त रूप कम या अधिक मात्रा में एक दुसरे में निहित होते है। उदाहरण के लिए विद्याध्यन मुख्यतः मानसिक कर्म है. यद्यपि बैठना भी एक प्रकार का शारीरिक कर्म है। किन्तु इसमें शारीरिक श्रम कम मात्रा में होता है। अध्ययन यदि अच्छी पुस्तको का किया जाये तो सत्कर्म हो जाता है। किन्तु यदि विषय आत्मा की उन्नति के अनुकूल नहीं हो तो यही कर्म दुष्कर्म बन जाता है। बचपन में किया हुआ अध्ययन संचित कर्म के रूप में एकत्र होता है और युवावस्था में व्यवसाय में सहयोग कर उसका फल प्रदान करता है।
कर्म को सक्रिय रूप अदृश्य मानसिक इच्छाए देती है. अतः कर्म की गुणवत्ता सत्व, रज और तम प्रवृत्ति अर्थात च्छा के अनुसार होती है मनुष्य की वर्तमान प्रकृति अर्थात स्वाभाव का आधार पूर्व जन्म के कर्म होते है। कुछ कर्म जिनका फल किसी कारणवश वर्तमान में नहीं मिल पाता है वह मनुष्य के कार्मिक खाते में बीज रूप में जमा हो जाते है और समय आने पर प्रवृत्ति और परिस्थितियों के रूप में फल देते है जब तक सभी कर्मो का फल प्राप्त नहीं कर लिया जाता कर्म और फल को संतुलित नहीं कर लिया जाता, जन्म और मरण की प्रक्रिया चलती रहती है

ईश्वर, समय, जीव, कर्म और प्रकृति में समन्वय :

जैसे जल बिना किसी प्रयोजन के नीचे की और ही बहता है क्यूंकि नीचे की और बहना पानी की प्रकृति है वैसे ही सृष्टि रचना करना ब्रह्म की प्रकृति है जीवात्मा का वास्तविक स्वरुप ब्रह्म है. ब्रह्म ही सर्वोच्च आत्मा है लेकिन अज्ञानवश जीवात्मा को यह अहम् होता है की वह ब्रम्ह से पृथक अपना अलग अस्तित्व  रखता हैइसी अज्ञान के कारण वह संसार के बंधन में बंधता है आत्मा का यह कर्तत्व और भोगत्व प्रकृति के गुणों के साथ उसके संयोग के कारण उत्पन होता है आत्मा अकर्ता होते हुए भी माया के ही कारण अहम् भाव से प्रकृति की क्रियाओं में स्वयं को कर्ता मान लेता है, और विभिन प्रकार के कर्म करने में व्यस्त हो जाता है यद्यपि वह अपने यथार्थ स्वरुप में न वह करता है न भोगता केवल दृष्टा है किन्तु अहंकार के कारण कर्म पर भाव आरोपित करने के कारण वह उन कर्मो का भोक्ता बन जाता है। यह कर्म का नियम है की जो करता है वह ही फलो को भोगता भी है

जिस प्रकार किसी व्यक्ति के बाहरी कार्य शरीर के द्वारा किये जाते है किन्तु उन कार्यो पर नियन्त्रण बुद्दि करती है, उसी तरह जीव के द्वारा किये हुए कार्यो का नियमन परमात्मा करता है यद्यपि ईश्वर का यह अनुमोदन जीव की इच्छा के अनुसार ही होता है कोई जीव यदि बुरा कर्म करना चाहता है तो भी ईश्वर उसको उसी दिशा में अनुमति प्रदान कर देता है ईश्वर का यह नियमन जीव के द्वारा भूतकाल के में किये गये कर्मो के आधार पर होता है ! यद्यपि कर्मो का जीव स्वामी है, किन्तु कर्मो के फल का अधिकार इश्वर को है। जीव स्वयं अपने कर्म के फल को निर्धारित नही कर सकते क्योकि यदि जीव को यह स्वतंत्रता मिल जाये तो वह केवल अच्छे फलो का ही भोग लेंगे और बुरे कर्म दूसरो पर आरोपित कर देंगे इसके कारण सम्पूर्ण सृष्टि के असंतुलित हो जाएगी। प्रकृति भी स्वभावतः जड़  होने के कारण कर्म फलो की व्यवस्था नही कर सकती कर्म स्वयम में जड़ है अतः यह भी अपने आप संचालित नहीं होते, केवल परमात्मा ही जीवो के कर्मफल के भोग की व्यवस्था करता है इन कर्मो का प्रथम गतिदाता स्वयं ब्रम्ह है वह एक बार कर्मो का संचालन करके फिर स्वयम उससे निवृत्त  हो जाते है सृष्टि संचालन के लिए ब्रह्म एक तत्व का दूसरे तत्व से संयोग करवा देते है अतः कर्मो में प्रथम गति सृष्टि के प्रारंभ करने के बाद वह जीवात्मा पर छोड़ देता है कि अब उसे कौन से कर्म करने है मनुष्य की स्वतंत्रता केवल कर्म का चुनाव करने में स्वीकार की गयी है. जीवात्मा को अपने निर्णयों से कर्म का चुनाव कर्म स्वातंत्र कहलाता है किन्तु कर्म के फलो का अधिकार सिर्फ इश्वर के पास ही है। ऐसा नहीं हो सकता की जीव कर्म कुछ और करे और फल उसे कुछ और मिलेजिस प्रकार आम पाक कर अपने स्वभाव से आम ही बनता है अनार नहीं उसी प्रकार जीव को वही फल मिलता है जो उसने किया और इश्वर उसे उसका फल प्रदान करते है कर्म के सहारे ही जीव इस संसार व् संसारिकता से सम्बंधित होता है मृत्यूपरांत शरीर के समस्त तत्व सृष्टि के उन तत्वों में विलीन हो जाते है जिनसे वह बने होते है किन्तु कर्म ही ऐसे होते है जिनका नाश नहीं होता और यही पुनर्जनम का आधार बनते है
कर्मों का फल ईश्वर समयानुसार दो गुणों के आधार पर देते है – प्रथम कर्म की तीव्रता एवं गुणवत्ता, द्वितीय जीव की पात्रता और सहन करने की क्षमता। यही कारण है कि समस्त कर्मो का फल तत्काल नहीं मिलता है। कुछ कर्म जो बलवान नहीं होते है, तुरंत फलदायी होते है। कुछ कर्म जो बलवान तो होते है किन्तु उनके फलीभूत होने के लिए परिस्थितिया नहीं होती है वह फल देने में समय लेते है कुछ कर्मो का फल क्षणिक होता है और कुछ फल दीर्घकाल तक भोगने पड़ते है. यह समय कर्म और मनुष्य संकल्प् अर्थात इच्छा शक्ति के आधार पर निर्धारित होता है जैसे क्षुधा शांत करने के लिए भोजन से कुछ समय की शांति होती है और उसके लिए पुनः कर्म करना पड़ता है, किन्तु नौकरी प्राप्त करने हेतु लम्बे समय तक अध्ययन करना पड़ता है और उसके परिणाम भी दीर्घकालिक होते हैजब कर्म के शारीरिक, मानसिक और वाचिक तीनो रूपों की ऊर्जा को संकल्पशक्ति की सहायता से एक लक्ष्य की प्राप्ति में संचालित की जाती है तो फल अधिक शुभ और स्थायी परिणाम देने वाले होते है
तत्व ज्ञान की प्राप्ति में ज्योतिष विज्ञान और तंत्र की भूमिका –
सृष्टि में अगर कोई नियम नहीं हो तो अनुशासन रहित संसार अस्त व्यस्त हो जायेगा क्योकि इस बात का विवेक ही नही रहेगा की कौन सा कर्म क्या फल लायेगा. इसलिए सम्पूर्ण सृष्टि को जो कर्म चलायमान करता हैउसके अपने नियत सिद्धांत है. उन सिद्धांतो और कारक तत्वों को समझकर यदि कर्म किया जाये तो फल प्राप्ति की दिशा भी निर्धारित की जा सकती है किसी भी कर्म का परिणाम उसमे निहित कारको की तीव्रता पर निर्भर करता है. ज्योतिष विज्ञान उन्ही निहित कारको का निर्धारण करता है. उन कारक तत्वों में परिवर्तन कर परिणाम को परिवर्तित किया जाता है।
यदि व्यक्ति ईश्वर के नियमो को समझकर  उसके अनुरूप चले तो जीवन में आनंद की प्राप्ति होती है किन्तु मनुष्य की सबसे बड़ी भूल यही होती है की वह अपनी सांसारिक इच्छाओ को पूर्ण करने में ही आनंद समझता है और समय के महत्त्व को अस्वीकार करने की भूल कर देता है परिणामतः दुःख पाता है उदहारण के लिए धोखा देकर शीघ्र धन प्राप्त किया जा सकता है किन्तु भेद खुल जाने पर पुनः लोगो के मन में अपने प्रति विश्वास को पैदा कर पाना अत्यंत कठिन होता है यदि प्रकृति के नियम के अनुरूप धैर्य रखकर शुभ कार्य करते रहे और फल के लिए समय की प्रतीक्षा करे तो दूरगामी परिणाम शुभ होते है किन्तु च्छाओं के अधीन होकर , ईश्वरीय नियमों के विरुद्ध जाकर समय से पहले शीघ्र परिणाम प्राप्त करने की च्छा के कारण जो दुःख प्राप्त होता है वह आसानी से परिवर्तित नहीं किया जा सकता

जीव की स्वतंत्रता उसी सीमा तक बदती है जिस सीमा तक वह स्वयं को परमात्मा के साथ एकाकार कर देता है, इसके लिए आवश्यक तथ्य यह  है कि स्वयं को स्वार्थपूर्ण रुचियों और अरुचियों से मुक्त कर लेना चाहिएज्योतिष विज्ञान मनुष्य की शारीरिक मानसिक और आत्मिक अवस्था को निरुपित करता है। ज्योतिष विज्ञान ग्रहों के माध्यम से कर्म के हर रूप को इंगित कर प्रगति और सुधार के लिए आधार बिंदु देता हैपूर्व कर्म रुपी उर्जा शरीर, मन और आत्मा पर बंधन का निर्माण करते है और दिव्य चेतना के प्रवाह को अवरुद्ध करते है. माया कर्मों के अनुसार ही मनुष्य को प्रभावित करती है. इसी कारण हर व्यक्ति का विवेक, स्वभाव और ज्ञान भिन्न भिन्न होता है. ज्योतिष विज्ञान उन अवरोधों को पहचान कर नकारात्मक कर्मों को शुद्ध और सकारात्मक कर्मों द्वारा उन्हें निष्प्रभावी करने का मार्ग बताते है इससे दिव्य चेतना की ऊर्जा का प्रवाह सहज और संतुलित हो जाता है इस प्रकार ज्योतिष आत्मा और परमात्मा के बीच के मध्य संतुलन बनाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है तंत्र भी मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को रूपांतरित कर उनको दिव्यता प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है

मनुष्य का चरम लक्ष्य  मोक्ष प्राप्त करना होता है. जिसके लिए यह आवश्यक है  की मनुष्य के सकाम भाव से किये गए समस्त कर्मो का नाश हो जाए.जब साधना के द्वारा व्यक्ति की प्रवृत्ति शुद्ध हो जाती है तब मन की चंचलता समाप्त हो जाती है जब व्यक्ति इन्द्रियों  के विषयों के साथ आसक्ति से मुक्त हो जाता है व्यक्ति के स्वभाव में सकाम की जगह निष्काम कर्म भावना का उदय हो जाता है निष्काम भावना के उदय हो जाने पर व्यक्ति का अहंकार समाप्त हो जाता है फिर उसे लाभ-हानि , शुभ-अशुभ की चिंता परेशान नहीं करती. क्यूंकि विषयों में उसकी आसक्ति समाप्त हो जाती है ज्ञान ही मोक्ष प्राप्ति का सर्वोतम मार्ग है लेकिन इस ज्ञान मार्ग पर वही चल सकता है जिसने इन्द्रियों को साध लिया हो इन्द्रियों के साधन के लिए जिज्ञासु  को ऐसे गुरु के चरणों में जाना चाहिए जिसे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो चुकी हो तभी उचित मार्गदर्शन में मनुष्य अपनी अशुद्धियों को दूर कर तत्व ज्ञान अर्थात अपने सत्य स्वरुप से साक्षात्कार कर पाने में समर्थ हो पाता है… @ प्रताप सिंह
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Pratap Singh
Author: Pratap Singh

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